देशभर में इन दिनों राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर बड़ी बहस छिड़ी है। मामला देश में कई दशकों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी रह रहे ऐसे लाखों लोगों का है, जिनकी नागरिकता अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाई है। यहां इस मुद्दे पर आगे बढऩे से पहले यह जान लेना भी जरूरी है कि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर आखिरकार है क्या? एनआरसी, दरअसल किसी राज्य या देश में रह रहे नागरिकों की विस्तृत रिपोर्ट होती है।
देश में पहली बार नागरिकता रजिस्टर 1951 में जनगणना के बाद तैयार हुआ था और इसमें दर्ज सभी लोगों को भारतीय नागरिक माना गया था। फिलहाल, देश में यह इकलौता नागरिक ब्योरा रजिस्टर है। हाल ही में यह मामला तब सुर्खियों में आया जब असम के संदर्भ में इससे जुड़ी अंतिम सूची प्रकाशित हुई। काबिलेगौर है कि पहले इस सूची में 41 लाख लोगों के नाम थे, परंतु इसका अंतिम मसौदा जब सार्वजनिक हुआ तो उसमें से 19 लाख 6 हजार 657 लोगों को बाहर कर दिया गया है।
यानी करीब 22 लाख लोगों की नागरिकता को ही इस सूची में मान्यता दी गई है। इस सूची में नागरिकता के लिए जो पैमाना तय किया गया है वह 24 मार्च, 1971 का है। यानी इससे पहले असम में पैदा होने वाले लोगों को देश का नागरिक माना जाएगा। इसके बाद पैदा हुए और असम में आए लोगों को नागरिकता साबित करने संबंधी दावों के समर्थन में प्रमाण पेश करने होंगे। एनआरसी को लेकर बनाए गए असम समन्वयक प्रतीक हजेला के अनुसार, अब तक कुल 3 करोड़ 11 लाख 21 हजार 4 लोग ही लिस्ट में जगह बनाने में सफल हुए हैं।
अब अहम सवाल यह है कि नागरिकता न पा सकने में नाकाम हुए इन 19 लाख लोगों का क्या होगा, क्या उन्हें नागरिकता को साबित करने का मौका दिया जाएगा, नागरिकता साबित न कर पाने की सूरत में क्या उन्हें देश निकाला दे दिया जाएगा या फिर उन्हें डिटेंशन सेंटरों में खानाबदोश जिंदगी जीने के लिए मजबूर कर दिया जाएगा! ये सवाल इन दिनों असम ही नहीं बल्कि पूर्वाेत्तर के कई राज्यों के साथ ही केंद्र सरकार और सियासी दलों की उलझन बने हुए हैं हालांकि इस संदर्भ में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि इस सूची से बाहर करने का यह मतलब नहीं है कि इस लोगों को अपनी नागरिकता के संबंध में दावे पेश करने का कोई अधिकार नहीं होगा।
सुप्रीम कोर्ट की पहल पर केंद्र ने मामले की संवेदनशीलता को समझते हुए पहले से व्यवस्थाएं कर रखी हैं इनमें फॉरेन ट्रिब्यूनल की स्थापना जैसा अहम कदम भी शामिल है। सूची से बाहर रह गए लोगों को फारेन ट्रिब्यूनल में 120 दिनों की अवधि तक जरूरी दस्तावेजों के साथ अपने दावे पेश करने का मौका दिया जाएगा। इसके बाद भी शिकायत रहने पर इन लोगों के पास राज्यों के हाईकोर्ट और आखिर में देश के माननीय सुप्रीम कोर्ट की शरण में जाने का मौका भी रहेगा।
असम में तो शायद ही कोई ऐसा हो जो इस सूची से पूरी तरह संतुष्ट हुआ हो, राज्य में सत्तासीन भाजपा के अलावा कांग्रेस और कई अन्य दलों के समर्थकों ने इस सूची को लेकर जहां नाराजगी जताई है, वहीं ऑल असल स्टूडेंट्स यूनियन आसू जैसे युवा संगठन ने इस मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जाने की बात कही है। कांगे्रस और अन्य विपक्षी दलों ने तो इस सूची से बाहर रह गए लोगों को कानूनी सहायता तक मुहैया करने कराने का ऐलान कर दिया है।
असम सहित पूर्वोतर के कई राज्योंं में इस विवाद की मूल जड़ में दरअसल वहां के स्थानीय लोगों की वह सोच है जिसमें बांग्लादेश से आए अवैध अप्रवासियों को बाहरी माना जाता है। स्थानीय लोगों का मानना है कि अवैध अप्रवासियों को देश से निकालने के बाद उनके लिए रोजगार के मौके खुल जाएंगे। बांग्लादेशी अप्रवासियों को राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से भी संवेदनशील माना जाता रहा है।
असम में विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा ने इस मुद्दे को चुनावी एजेंडे में रखा था और वहां सरकार गठन के बाद राष्ट्रीय स्तर पर अवैध अप्रवासियों की नागरिकता के मुद्दे पर आगे बढऩे की बात कही थी परंतु फिर सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद पार्टी ने अपने कदम थाम लिए थे। असम में भाजपा दरअसल एनआरसी के जरिये बड़ी संख्या में बंगाली हिंदुओं के बाहर होने को लेकर चिंतित है।
इसकी वजह यह है कि असम के 18 प्रतिशत बंगाली हिंदू भाजपा को सपोर्ट करते हैं। लोकसभा चुनावों में उन्होंने भाजपा को 14 में से 9 सीटें दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी। दूसरी ओर पार्टी को यह भी चिंता है कि कहीं राज्य में स्वार्थी तत्व अस्पष्ट नागरिकता के मुद्दे को हवा देते हुए इसका गलत फायदा न उठा लें। ऐसे माहौल में एनआरसी को राष्ट्रीय मुद्दा बनाना भाजपा के लिए उलझी हुई गांठ को और उलझाने जैसा होगा इसलिए बदले रुख में पार्टी कानून सम्मत तरीके से ही इस विवाद का निपटारा चाह रही है।
अवैध अप्रवासियों का यह मुद्दा केंद्र की भाजपा सरकार के लिए असम में ही नहीं बल्कि पूर्वोत्तर के अलावा दिल्ली और जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील राज्यों के लिए भी काफी अहमियत रखता है। हरियाणा, दिल्ली और कुछ समय बाद ही जम्मू-कश्मीर में होने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए भी भाजपा इस मुद्दे पर आगे बढऩे से हिचक रही है।