कान्हा ने दूध पीते-पीते पूतना के प्राण पी लिए थे। माखन चुराते-चुराते अपने सखाओं का मन जीत लिया था। डरा दिया था इसने यशोदा मैया को अपने मुख में ब्रह्मांड दिखाकर। पेड़ों पर उछल-कूद मचाते, कर दिया था इसने कालीनाग का मर्दन और उसके फन पर नृत्य करते मुस्कुराते हुए, यमुना नदी से बाहर आ गए थे विजयी मुद्रा में। इसकी बंसी की धुन सुनकर गौएं और गोपियां अपनी सुध-बुध भूल जाती थीं। हो जाती थीं गोपियां इसके महारास के रस में सराबोर। ऐसा था यशोदा मैया का छोरा कन्हैया।
यही नटखट, माखनचोर, बंसी बजैया, कान्हा मथुरा में आकर बन गया कृष्ण। महाभारत युद्ध में यही कृष्ण बना धनुर्धर अर्जुन का सारथी। कुरुक्षेत्र में युद्ध का शंखनाद हो चुका था। रणभेरी गूंज उठी थी, परंतु यह क्या? महारथी अर्जुन के हाथ-पांव शिथिल होने लगे। मुंह सूखने लगा। शरीर में कँपकपी होने लगी। आंखें आंसुओं से भर आईं, मन विषाद से। हाथ से गांडीव सरककर जमीन पर गिर पड़ा, क्योंकि पृथा-पुत्र के मस्तिष्क पर छा गया था मोह। देखा था परंतप अर्जुन ने विपक्ष में खड़े अपने दादा, पड़दादा, आचार्यों, मामाओं, पुत्र-पौत्रों, मित्रों, स्वजनों, परिजनों और बंधुजनों को। सोचने लगे कि जिनके हाथों ने मुझे झुलाया, जिनकी गोद में खेलकर मैं बड़ा हुआ, जिनके आश्रम में रहकर मैंने विद्या पाई, जिन्होंने मुझे धनुष-बाण चलाना सिखाया क्या उन्हीं से युद्ध करूं? इन्हें मारने से तो बेहतर होगा कि मैं भीख मांगकर खाऊं। इन सभी के खून से लथपथ, सना हुआ राज्य लेकर मैं क्या करूँगा। चले गए थे विषादग्रस्त पार्थ, कृष्ण की शरण में शिष्य भाव से। की थी ऐसे में शिक्षा पाने के लिए अर्जुन ने अनुनय-विनय श्रीकृष्ण से और श्रीकृष्ण ने समझाया था यूँ उस किंकर्तव्यविमूढ़ पार्थ को।
हे भारत! जो जन्मता है वह मरता है। जो मरता है वह जन्मता है। यह है प्रकृति का अटूट नियम। मनुष्य जैसे पुराने वस्त्रों को छोड़कर कर लेता है नए वस्त्र धारण वैसे ही देही पुराने शरीर को छोड़कर धारण कर लेता है नए शरीर को। न तो यह आत्मा जन्म लेती है और न मरती है।
आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न जल गिरा सकता है, न वायु सुखा सकती है। यह आत्मा अजन्मा, नित्य शाश्वत और सनातन है। जो आत्मा को मरने वाला समझता है, जो इसे मरा हुआ मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते कि न तो आत्मा मरती है और न ही मारी जाती है, इसीलिए सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय को एक मानकर तुम युद्ध करो।
हे धनंजय! कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है, उसके फलों में नहीं। तुम कर्मफल का कारण भी मत बनो। कर्म न करने में भी तुम्हारी आसक्ति नहीं होनी चाहिए। तुम योगस्थ होकर कर्म करो, क्योंकि सिद्धि-असिद्धि, हर्ष-विषाद में समभाव से रहना ही योग है। समत्वं योग उच्यते। कर्मों की कुशलता ही योग है। योग: कर्मसु कौशलम?।
इन्द्रियों को अंतर्मुखी कर, मन को संयमित और नियंत्रित कर, बुद्धि को स्थिर कर तुम स्थितप्रज्ञ बनो। कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है। तुम कर्मफल में आसक्त हुए बिना ही कर्म करो। कर्मों की गति गहन है। कर्म संन्यास और कर्मयोग दोनों ही मुक्ति देने वाले हैं, परंतु कर्म संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ है। कर्मफल में आसक्ति को त्यागकर कर्मों को ब्रह्म में समर्पित करके कार्य करना श्रेयस्कर है, कर्म करते हुए कर्मफलों को त्यागने से ही मनुष्य त्यागी बनता है।
हे नरश्रेष्ठ अर्जुन! प्रत्येक वर्ण के अपने-अपने कर्म हैं। पराक्रम, तेज, धर्म, चतुराई, युद्ध से मुंह न मोडऩा, दान और ईश्वरभाव ये क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। हे कुरुश्रेष्ठ! यदि अहंकार का आश्रय लेकर तुम यह समझते हो कि युद्ध नहीं करोगे तो तुम्हारा निश्चय व्यर्थ है, क्योंकि तुम्हारा क्षत्रिय स्वभाव तुम्हें युद्ध में प्रवृत्त करके ही रहेगा।