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Editorial

मातृभाषाओं को बनाएं शिक्षा का माध्यम - अरुण कुमार कैहरबा

February 21, 2022 07:04 AM

भाषा केवल विचारों व भावनाओं को अभिव्यक्त करने का ही साधन नहीं होती। यह चिंतन करने और विचार निर्माण का भी आधार होती है। किसी भी समाज की संस्कृति भाषा से निर्मित व मुखरित होती है। भाषा हमें पहचान देती है। वैसे तो दुनिया में बोली जाने वाली सभी करीब सात हजार भाषाएं महत्वपूर्ण हैं। लेकिन हर किसी के लिए अपनी भाषा की सबसे ज्यादा अहमियत होती है। किसी परिवार में बोली व समझी जाने वाली भाषा ही उस परिवार के सदस्यों की मातृभाषा कहलाती है। मां की गोद व परिवार में सीखी जाने वाली भाषा के साथ बच्चे का जुड़ाव होता है। उसी भाषा में बच्चे को शिक्षा दी जाए, तो वह शिक्षा उसके मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक विकास के सभी पक्षों को सकारात्मक ढ़ंग से  प्रभावित करती है। उसकी चिंतनशीलता, विचारशीलता, कल्पनाशीलता व संवेदनशीलता का विकास होता है। जो उसे अच्छा नागरिक बनाने में भी मदद करती है।

जिस तरह से दुनिया में एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति, एक देश द्वारा दूसरे देश पर आधिपत्य और शोषण का प्रचलन शुरू हुआ। इस साम्राज्यवादी सोच का असर भाषा व शिक्षा पर भी पड़ा। विकास के साथ-साथ पूंजीवाद और साम्राज्यवाद ने शिक्षा व भाषा के क्षेत्र में भी अधिकार जमाना शुरू किया। दूसरे देशों पर अधिकार जमाने के साथ-साथ साम्राज्यवादी देशों ने अपनी भाषाओं का भी प्रचार किया। इससे दूसरे देशों की भाषाओं व साहित्य से परिचय हुआ, जोकि दुनिया को जोडऩे के लिए भी जरूरी था। लेकिन साथ ही सत्ताधारी वर्ग की देखादेखी उनकी भाषाओं को बोलना अच्छा माना जाने लगा। अपनी बोली-भाषाओं को बोलना व सीखना हेय दृष्टि से देखा जाने लगा। अंग्रेजी साम्राज्य से राजनैतिक आजादी तो हमने 15 अगस्त, 1947 को प्राप्त कर ली। संविधान में भी हिन्दी को राजभाषा बनाने का संकल्प लिया गया। लेकिन सत्ताशाली वर्ग के अंग्रेजी के प्रति मोह का असर यह हुआ कि हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा को राजभाषा के रूप में इस्तेमाल करने की समयसीमा आज तक समाप्त होने को नहीं आई है। सत्ता का संग प्राप्त करके अंग्रेजी का वर्चस्व धीरे-धीरे बढ़ता ही गया है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है आज अंग्रेजी माध्यम के स्कूल गांव-गांव में खुल गए हैं और उनमें बच्चों को पढ़ाना प्रतिष्ठा का प्रश्र बन गया है। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में ऐसे तानाशाही नियमों को लागू किया जाता है, जिसमें अन्य मातृभाषाएं तो क्या हिन्दी में जरा सा बोल देना भी दंड का कारण होता है। बच्चों द्वारा अंग्रेजी भाषा, संस्कृति और संस्कारों की पालना होते देखकर अभिभावकों का सीना गर्व से फूला रहता है।

भारत अपनी भाषाई व सांस्कृतिक विविधताओं के लिए जाना जाता है। यह विविधता दुनिया भर के लोगों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। इसे देखने-जानने के लिए वे देशों की सीमाओं को पार करके यहां आते हैं। भाषाओं की ही बात करें तो संविधान की आठवीं अनुसूची में ही 22 भाषाओं को स्थान दिया गया है। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में 1635 तर्कसंगत मातृभाषाएँ और 234 पहचान योग्य मातृभाषाएँ मौजूद हैं। इतनी अधिक भाषाओं में विपुल साहित्य सम्पन्न शायद ही दुनिया में कोई और देश होगा। इतनी अधिक भाषायी समृद्धि के बावजूद भारत ऐसा विरला ही देश है, जहां पर राजकाज के कार्यों में विदेशी भाषा का बोलबाला हो। लोकतांत्रिक व्यवस्था में भाषा महत्वपूर्ण साधन है, जिससे सरकार व जनता के बीच रिश्ता होता है। सरकार और जनता के बीच जितनी नजदीकी होगी, उतना ही लोकतंत्र मजबूत होगा। शिक्षा व सूचना के अधिकार का भी सार यही है कि लोगों की भाषाओं में सरकारी व्यवस्थाएं काम करें। लेकिन यहां सब उल्टा-पुल्टा होता हुआ दिखाई दे रहा है। जनता की भाषा और सरकार की भाषा में बड़ा अंतर खड़ा है। न्यायालयों में किसी केस पर होने वाली बहस अंग्रेजी में होती है। केस लडऩे वाले लोगों को पता ही नहीं होता कि क्या हो रहा है। जिस व्यक्ति को सजा मिलती है, उसे कोर्ट में  पता ही नहीं चलता कि क्या बहस-मुबाहिसा हुआ। स्कूलों में उस भाषा में शिक्षा देने की जिद की जा रही है, जिसका आम जनता से कोई रिश्ता नहीं है। देश की आजादी के साथ-साथ मानसिक गुलामी के कारकों से भी मुक्ति प्राप्त करनी थी। लेकिन हम गुलामी को ओढ़ते ही जा रहे हैं। हमारी बोलियां और भाषाएं खत्म हो रही हैं। अपने गांवों की हालत पर ही नजर डालें तो अब कितनी ही बोलियां अब सुनाई नहीं देती हैं। बहु सांस्कृतिक एवं बहु भाषिक समाजों का अस्तित्व उन भाषाओं के द्वारा किया जा सकता है, जिनमें परंपरागत ज्ञान और संस्कृति का संरक्षण व स्थानांतरण होता है।

संयुक्त राष्ट्र संघ व यूनेस्को द्वारा 21 फरवरी को अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाए जाने की शुरूआत की गई थी। यह दिवस मनाए जाने का प्रस्ताव हमारे पड़ोसी देश बांग्लादेश ने दिया था। आजादी से पहले बांग्लादेश भारत का हिस्सा था। आजादी के बाद पूर्वी पाकिस्तान था। पाकिस्तान सरकार ने उर्दू को मनमाने ढ़ंग से राष्ट्रभाषा का दर्जा दे दिया तो अपनी भाषा बांग्ला के लिए वहां के लोगों ने लड़ाई लड़ी। मातृभाषा दिवस इस बात पर बल देता है कि भाषायी विविधता जरूरी है। शांति व सहिष्णुता के लिए भी विविधता की सुरक्षा करना बेहद जरूरी है। लेकिन भाषायी विविधता पर लगातार खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। 40 प्रतिशत आबादी अपनी उन भाषाओं की शिक्षा से वंचित हो रही हैं, जिन्हें वे बोलते और समझते हैं। हर दो सप्ताह में एक भाषा अपनी बौद्धिक व सांस्कृतिक विरासत को लेकर लुप्त हो जाती है। 43 प्रतिशत भाषाएं खतरे में हैं। दुनिया भर में केवल कुछ सौ भाषाओं को शिक्षा में स्थान दिया जा रहा है या उनके माध्यम से शिक्षा दी जा रही है। सौ से भी कम भाषाएं डिजीटल दुनिया का हिस्सा बनी हुई हैं। 16 मई, 2007 को संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने प्रस्ताव पास करके अपने सभी सदस्य देशों को विश्व के लोगों द्वारा बोली जाने वाली सभी भाषाओं के संरक्षण एवं सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए कहा। उसी प्रस्ताव में वर्ष 2008 को अन्तर्राष्ट्रीय भाषा वर्ष घोषित किया। मातृभाषा आधारित बहु भाषिक शिक्षा की प्रगति हो रही है। वर्ष 2021 में मातृभाषा दिवस का मुख्य विषय-शिक्षा व समाज के समावेश के लिए बहुभाषावाद को बढ़ावा देना रखा गया। यह भारत की पहचान का सार है। यदि हम बहुभाषावाद को बढ़ावा देना चाहते हैं तो हमें मातृभाषाओं में शिक्षा पर ध्यान देना होगा। इसके लिए मानसिक गुलामी से मुक्ति जरूरी है।

वर्ष 2022 के लिए मातृभाषा दिवस के लिए ‘बहुभाषा सीखने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग करना: चुनौतियाँ और अवसर’ रखा गया है। इस विषय पर यूनेस्को के महानिदेशक ऑड्रे एजोले का कहना है- ‘भाषाई विविधता की रक्षा के लिए प्रौद्योगिकी नए उपकरण प्रदान कर सकती है। ऐसे उपकरण, उदाहरण के लिए, उनके प्रसार और विश्लेषण को सुविधाजनक बनाने के लिए, हमें उन भाषाओं को रिकॉर्ड करने और संरक्षित करने की अनुमति देते हैं जो कभी-कभी केवल मौखिक रूप में मौजूद होती हैं। सीधे शब्दों में कहें तो वे स्थानीय बोलियों को एक साझा विरासत बनाते हैं। हालाँकि, क्योंकि इंटरनेट भाषाई एकरूपता का जोखिम पैदा करता है, हमें यह भी पता होना चाहिए कि तकनीकी प्रगति बहुभाषावाद की सेवा तभी तक करेगी जब तक हम यह सुनिश्चित करने का प्रयास करते हैं।’

 
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