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Editorial

न्याय और समानता पर आधारित व्यवस्था के लिए अथक संघर्ष करने वाले युगपुरूष डॉ. आंबेडकर - अरुण कुमार कैहरबा

April 14, 2021 07:40 AM

बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर एक बहुमुखी प्रतिभाशाली शख्सियत हैं, जिन्होंने भारत में जाति-वर्ण की बेडिय़ों को तोडऩे के लिए अथक संघर्ष किया। दलित एवं अछूत समझी जाने वाली जाति में पैदा होने के कारण उनके रास्ते में बाधाओं के पहाड़ खड़े थे। अपनी प्रतिभा के बल पर उन्होंने सभी रूकावटों को पछाड़ कर आगे बढऩे के रास्ते बनाए। उन्होंने जाति की जंजीरों में बुरी तरह से जकड़े भारतीय समाज में शिक्षा, संगठन व संघर्ष का जोश व जज़्बा जगाया। डॉ. आंबेडकर को आजाद भारत के पहले कानून मंत्री, भारतीय संविधान के शिल्पकार, आधुनिक भारत के निर्माता, शोषितों, दलितों, मजदूरों, महिलाओं के मानवाधिकारों की आवाज बुलंद करने वाले दार्शनिक, विचारक, समाज सुधारक, राजनेता व समता पुरूष के रूप में जाना जाता है। उन्होंने गौतम बुद्ध, कबीर व ज्योतिबा फुले से प्रेरणा लेकर उनके विचारों और क्रांतिकारी परंपरा को आगे बढ़ाने का काम किया।

भीमराव रामजी आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 में तत्कालीन केन्द्रीय प्रांत और आधुनिक मध्य प्रदेश में महू में रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की 14वीं संतान के रूप में हुआ था। उनका परिवार मराठी था और वो महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के अंबावडे नामक स्थान से संबंध रखता था। वे अछूत समझी जाने वाली महार जाति से संबंध रखते थे। रामजी सकपाल भारतीय सेना की महू छावनी में सूबेदार के पद पर तैनात थे। सामाजिक रूप से निचले पायदान पर स्थित होने के बावजूद उनकी अपने बच्चों को पढ़ाने की बहुत इच्छा थी। उन्होंने बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिल किया। लेकिन जाति की जकडऩ के कारण शिक्षा की डगर आसान नहीं थी। भीमराव व अन्य अछूत मानी जाने वाली जातियों के बच्चों को स्कूल में अलग बिठाया जाता था। स्कूल में बहुत ऊपर से पात्र द्वारा पानी कोई डालता तो भीमराव प्यास बुझाता। इसी कारण कईं बार बच्चों को प्यासे रह जाना पड़ता था। इस तरह के भेदभाव के बावजूद भीमराव की प्रतिभा को देखते हुए कुछ अध्यापकों का स्नेह भी उन्हें मिला। एक अध्यापक ने तो उनके नाम से सकपाल नाम हटाकर परिवार के मूल गांव अंबावडे के आधार पर आंबेडकर नाम जोड़ दिया।

1894 में रामजी सकपाल सेवानिवृत्त हो जाने के बाद सपरिवार सतारा चले गए और इसके दो साल बाद 1896 में भीमराव की मां की मृत्यु हो गई। बेहद कठिन परिस्थितियों में आंबेडकर के दो भाई और दो बहनें ही जीवित बचे। 1904 में आंबेडकर ने एल्फिंस्टोन हाई स्कूल में दाखिला लिया। 1907 में मैट्रिक परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने बंबई विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और इस तरह वो भारत में कॉलेज में प्रवेश लेने वाले पहले अस्पृश्य बन गये। 1913 में पिता की मृत्यु के बावजूद उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। गायकवाड शासक ने संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में जाकर अध्ययन के लिये आंबेडकर का चयन किया। साथ ही इसके लिये छात्रवृत्ति भी प्रदान की। 1916 में उन्हें पी.एच.डी. से सम्मानित किया गया। इस शोध को अंतत: उन्होंने पुस्तक इवोल्युशन ऑफ प्रोविन्शिअल फिनान्स इन ब्रिटिश इंडिया के रूप में प्रकाशित किया। अनेक प्रकार की बाधाओं के बाजवूद उन्होंने अध्ययन जारी रखा। कानून, अर्थशास्त्र एवं विज्ञान विषयों की पढ़ाई की और अनेक डिग्रियां प्राप्त की, जोकि अपने आप में एक रिकार्ड था।

शोषितों की आवाज को बुलंद करने के लिए उन्होंने ‘मूकनायक’, ‘बहिष्कृत भारत’ जैसे अखबार निकाले। अनेक शोधपरक किताबें लिखी। समय-समय पर कईं स्थानों पर भाषण दिए। ये सभी समाज, अर्थव्यवस्था व राजनीति की आलोचना प्रस्तुत करते हुए हमें बेहतरी की राह दिखाते हैं। आजादी की लड़ाई को उन्होंने अपनी सरगर्मियों और विचारों के जरिये नई विषय-वस्तु दी। राजनैतिक आजादी से भी पहले उन्होंने सामाजिक और आर्थिक आजादी का सवाल उठाया। उन्होंने कहा- ‘जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता हासिल नहीं कर लेते, कानून आपको जो भी स्वतंत्रता देता है वो आपके लिए बेमानी है।’ सार्वजनिक स्थानों, कूओं व तालाबों पर जाने के दलितों के अधिकार के लिए आंदोलन चलाए। जाति के नाम पर चल रहे भेदभाव को लेकर उन्होंने बहुत ही सशक्त ढ़ंग से अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने सामाजिक न्याय के लिए गहरा विमर्श किया।

उन्हें संविधान सभा का सदस्य चुना गया। देश की आजादी के बाद उन्हें देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अपने मंत्रीमंडल में कानून मंत्री की जिम्मेदारी दी। उन्हें संविधान की प्रारूप समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। स्वतंत्रता आंदोलन के शहीदों के सपनों और जनता की आकांक्षाओं के अनुकूल देश के संविधान का निर्माण एक बड़ी चुनौती था। संविधान सभा के सदस्यों का नेतृत्व करते हुए आंबेडकर ने इस चुनौती को स्वीकार किया। संविधान निर्माण के लिए उन्होंने दुनिया के 60 से अधिक देशों के संविधान का अध्ययन किया और देश संचालन के लिए एक बहुत ही बेहतर संविधान का निर्माण किया। संविधान बनाने में उनके महत्वपूर्ण योगदान के कारण ही उन्हें संविधान निर्माता की संज्ञा दी जाती है।

देश की आजादी के बाद भी जात-पात की बुराई के बरकरार रहने के कारण वे बहुत ही व्यथित थे। उन्होंने हिंदू धर्म की ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था की कड़ी आलोचना प्रस्तुत की। जाति से त्रस्त हिन्दु धर्म से जब वे बेचैन हो गए तो अपने लाखों अनुयायियों को लेकर उन्होंने 14अक्तूबर, 1956 को बौद्ध धर्म ग्रहण किया। 6दिसंबर, 1956 को आंबेडकर का महापरिनिर्वाण हो गया। देहांत के बावजूद अपने विचारों एवं संघर्षों के जरिये उन्होंने देश की राजनीति को गहरे तक प्रभावित किया है।

अंबेडकर ने अपने आत्मकथ्य में लिखा है कि उनके तीन गुरु और तीन उपास्य आदर्श हैं। दादा केलुस्कर द्वारा दी गई बुद्ध के चरित्र की किताब पढ़ कर अंबेडकर को अलग ही प्रकाश महसूस हुआ। उनका मानना है कि बुद्ध धर्म में कोई भेदभाव नहीं है और सभी इन्सान बराबर हैं। पिता जी के कबीर पंथी होने के कारण अंबेडकर ने कबीर के जीवन-दर्शन से परिचय प्राप्त किया। उन्होंने कबीर को दूसरा गुरु माना है। इसके अलावा अंबेडकर जिनके जीवन व विचारों से सबसे अधिक प्रभावित हुए वे हैं- महामना ज्योतिबा फुले।

फुले ने दलितों व पिछड़ों को इन्सानियत का पाठ सिखाया है और वे उनकी राह पर ही चलेंगे। इसके अलावा वे विद्या, स्वाभिमान व चरित्र को अपना आदर्श मानते हैं। उनका कहना है- ‘‘विद्या बहुत बड़ी चीज है। मुझे विद्या के प्रति पागलपन की हद तक लगाव है। मेरे पास कुल 32हजार किताबें हैं। हैं किसी ब्राह्मण के पास इतनी किताबें? दिखा दें वो। ठाकुर एंड कंपनी के हजारों रूपयों की उधारी के बिल मुझ पर हैं। उधार का माल मुझे कहीं भी मिलता है। जहां मेरी उधारी बाकी जरह जाती है, वहां मैं अपनी गाड़ी ले जाकर खड़ी कर देता हूँ। इस प्रकार सभी को विद्या से प्रेम होना चाहिए।’’ एक जातिमुक्त समतावादी एवं न्यायसंगत समाज बनाने का सपना उन्होंने देखा था। अपने इस सपने के लिए उन्होंने जीवन भर काम किया।

 
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